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प्रीम कोर्ट के दखल के बाद आखिर केंद्र सरकार ने संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में एक अतिरिक्त प्रयास देने की बात मान ली। जो लोग कोविड-19 के चलते सिविल सेवा परीक्षा 2020 में शामिल नहीं हो पाए थे, वे कुछ शर्तों के साथ एक बार और 2021 की परीक्षा में बैठ सकते हैं। मूल रूप से यह परीक्षा 31 मई, 2020 को होनी थी, जिसे कोविड के चलते 4 अक्तूबर को आयोजित किया गया। लेकिन तब भी पूरे देश में कोविड की वजह से स्थिति भयानक बनी हुई थी।
कई अभ्यर्थियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि उन्हें ऐसी असाधारण परिस्थिति की वजह से 2021 में आयोजित होने वाली परीक्षा में शामिल होने की विशेष इजाजत दी जाए। केंद्र सरकार पिछली कई सुनवाइयों में तरह-तरह के बहाने बनाती रही कि इससे एक गलत परंपरा बनेगी। मगर सुप्रीम कोर्ट इस बात से संतुष्ट नहीं हुआ और आदेश दिया कि जब तक इस मामले में निर्णय नहीं होता तब तक 2021 की सूचना प्रकाशित न की जाए। 2021 की परीक्षा 27 जून को होनी है, जिसकी घोषणा दो महीने पहले कर दी गई है।
देश के हजारों अभ्यर्थियों के लिए इससे सुकून मिलेगा, लेकिन कुछ शर्तों के साथ। केवल उन्हीं अभ्यर्थियों को विशेष इजाजत दी गई है, जिनका यूपीएससी के नियमों के अनुसार 2020 में अंतिम अवसर था और वे 2021 की परीक्षा के लिए अधिकतम आयु के हिसाब से भी हकदार हों।
संघ लोक सेवा द्वारा आयोजित इस परीक्षा में बैठने की न्यूनतम आयु इक्कीस वर्ष है। लेकिन अधिकतम आयु और प्रयासों की संख्या अलग-अलग। सामान्य श्रेणी की अधिकतम आयु बत्तीस वर्ष है, तो ओबीसी के लिए पैंतीस और अनुसूचित जाति जनजाति के लिए सैंतीस वर्ष। इसी प्रकार प्रयासों की संख्या क्रमश: छह, नौ और सोलह वर्ष है। सुप्रीम कोर्ट ने जो विशेष इजाजत दी है उसके अनुसार अगर किसी भी वर्ग के अभ्यर्थी का 4 अक्तूबर, 2020 को आयोजित परीक्षा में प्रयासों के हिसाब से अंतिम अवसर था, तो उसे एक बार और परीक्षा देने का मौका मिलेगा, लेकिन तभी जब वह उम्र के हिसाब से अयोग्य न हुआ हो।
अक्तूबर 2020 में हुई प्रारंभिक परीक्षा में लगभग पांच लाख अभ्यर्थी बैठे थे, जिनमें से दस हजार जनवरी 2021 में आयोजित हुई मुख्य परीक्षा में शामिल हुए। मुख्य परीक्षा का परिणाम अगले महीने अपेक्षित है।
सब जानते हैं कि महामारी के चलते जनजीवन पूरी तरह से ठप्प हो गया था। अभ्यर्थियों का यह तर्क सही है कि उनमें से कई खुद बीमार हो गए थे या उनके परिवार के सदस्य अस्पताल में भर्ती थे। और यह भी कि आने-जाने की व्यवस्था भी उपलब्ध नहीं थी। ऐसे में कैसे परीक्षा देते? यह भी सही है कि ऐसी परिस्थितियों में क्या कोई यह परीक्षा देने का मानसिक संतुलन बनाए रह सकता है?
अभ्यर्थियों ने संघ लोक सेवा आयोग, कार्मिक मंत्रालय समेत केंद्र सरकार से अनुरोध किया था, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई। ऐसी विषम परिस्थितियों में जब मौद्रिक नीतियों समेत बहुत से असाधारण फैसले लिए गए, अच्छा तो यही रहता कि केंद्र सरकार हजारों अभ्यर्थियों के हित में यह बात मान लेती और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा न खटखटाना पड़ता। मगर चलो, देर आयद दुरुस्त आयद।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। संघ लोक सेवा आयोग या कहें कार्मिक मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट के बीच यह रस्साकशी पिछले तीन-चार दशक में कई बार चली है। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद आए भूचाल में देश भर में आंदोलन हुए, कॉलेज, विश्वविद्यालय बंद हुए थे। ऐसी विशेष परिस्थितियों में सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के प्रयासों की संख्या तीन से बढ़ा कर चार कर दी गई थी। उम्र भी सभी वर्ग के बच्चों के लिए दो वर्ष बढ़ा दी गई थी, तब जाकर मामला शांत हुआ।
संघ लोक सेवा आयोग के इस पक्ष की तारीफ की जानी चाहिए कि सिविल सेवा परीक्षा पद्धति की हर दस वर्ष में समीक्षा की जाती है। मौजूदा परीक्षा प्रणाली दौलत सिंह कोठारी समिति की सिफारिशों पर वर्ष 1979 में शुरू की गई थी, जिसकी समीक्षा वर्ष 1989 में इतिहासकार और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष सतीश चंद्र कमेटी ने की। फिर 2000 में वाईपी अलघ की अध्यक्षता में बनी समिति ने भी इतनी बढ़ी हुई उम्र सीमा को प्रशासनिक क्षमता के लिए उचित नहीं माना और अधिकतम उम्र सीमा अ_ाईस या उससे कम करने की सिफारिश की।
उसके बाद गठित प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों में भी बार-बार इस बढ़ी हुई उम्र के खिलाफ आवाज उठी। लेकिन किसी भी सरकार ने इन सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया। बल्कि वर्ष 2013 में और भी कुछ उल्टे कदम उठाए गए। गौरतलब है कि वर्ष 2011 में सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम चरण में ही अंग्रेजी थोप दी गई थी, जिसकी वजह से भारतीय भाषाएं आज तक हाशिए पर पहुंच चुकी हैं। इसके खिलाफ संसद में भी आवाज उठी। मगर तत्कालीन सरकार ने कोठारी समिति की सिफारिशों के खिलाफ शामिल की गई अंग्रेजी को तो हटाया नहीं, सभी वर्गों के लिए उम्र सीमा 2013 में दो वर्ष और बढ़ा दी गई।
प्रयास भी सामान्य के लिए चार से बढ़ा कर छह कर दिए गए। प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी लादने के खिलाफ विद्यार्थी सड़कों पर उतरे, फिर कोर्ट का सहारा लेना पड़ा। दिल्ली हाई कोर्ट के इस प्रश्न का जवाब संघ लोक सेवा आयोग नहीं दे पाया कि 'क्या आपने कोई ऐसा अध्ययन किया है, जिसमें भारतीय भाषाओं को जानने वाले अधिकारी अंग्रेजी जानने वालों से कमतर हैं?Ó और दूसरा प्रश्न कि जब मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की न्यूनतम योग्यता रखी गई है, तो प्रारंभिक परीक्षा के पहले चरण में अतिरिक्त अंग्रेजी क्यों?
अदालत के हस्तक्षेप के बाद 2014 में प्रारंभिक परीक्षा से अंग्रेजी हटाई गई, लेकिन उम्र की सीमा वही बनी रही। 2011 से लेकर 2013 तक तीन वर्षों में जो अभ्यर्थी अंग्रेजी के कारण बाहर हो गए, उनकी बार-बार फरियाद के बावजूद उन्हें एक और मौका नहीं दिया गया। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए अधिकतम आयुसीमा को कम करने की जरूरत है।ब्रिटिश काल में तो अधिकतम उम्र सीमा उन्नीस और इक्कीस थी। आजादी के बाद भी पुलिस सेवा के लिए चौबीस वर्ष और अन्य सेवाओं के लिए छब्बीस वर्ष थी। इसे और लोकतांत्रिक बनाने के लिए 1979 में इसे अ_ाईस किया गया और कमजोर वर्ग के लिए पांच साल अतिरिक्त। लेकिन इस बीच साक्षरता दर से लेकर शिक्षा की पहुंच कई गुना व्यापक हुई है। निजी क्षेत्र में काम कर रहे नौजवानों की चुनौती भी सामने है। इस चुनौती का सामना कम उम्र के अधिकारी कर सकते हैं। वरना सरकारी ढांचा बिखर जाएगा। अमत्र्य सेन और ज्यां द्रेज की पिछले दिनों आई किताब 'भारत और उसके विरोधाभासÓ में साफ लिखा है- जो शिक्षा लगभग शत-प्रतिशत सरकार के नियंत्रण में थी, अब पचास फीसद से भी कम रह गई है। सरकारी कमजोरी की वजह से निजी क्षेत्र शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, रेल में लगातार अपने पैर पसार रहा है। अच्छा हो, अगर सरकारी नाव को डूबने से बचाना है, तो उसके हर पक्ष पर खुल कर विचार, संशोधन किया जाए, जिससे अदालती हस्तक्षेप की जरूरत ही न पड़े।